सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

बिहार राजनीति की छह सूत्री हकीकत

- योगेन्द्र यादव (वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक)
छह चरणों के चुनाव का जायजा छह दिन में लगा लेना तो किसी के बस की बात नहीं है। अब तक दो चरण हो चुके हैं और चुनाव प्रक्रिया के बीचोबीच चुनावी परिणाम का आकलन करने का यहाँ कोई इरादा नहीं है।

यूँ भी सीटों की चुनावी भविष्यवाणी से तौबा कर चुका हूँ। लेकिन छह चरण के इस चुनाव के बहाने बिहार की बदलती राजनैतिक हकीकत के बारे में छह दिन में जो सीख पाया उसके छह सूत्र पेश कर रहा हूँ।

पहला सूत्र: बिहार के विकास की बात करना अभी जल्दबाजी है लेकिन विकास की आस जरूर बंधी है।

पिछले पाँच साल में बिहार के चहुँमुखी विकास के दावे बेशक अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। आर्थिक वृद्धि के आँकड़े जरूर भ्रामक हैं। लेकिन जिसे आमतौर पर विकास कहा जाता है (इस बिजली, पानी, सड़क केंद्रित धारणा को 'बिपास' कहें तो बेहतर होगा) उसके कुछ पहलुओं में पिछले पाँच साल में आशातीत बदलाव हुआ है।

राज्य के हर कोने में सड़कों का कायापलट हो गया है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर जाने लगे हैं और मरीज भी। स्कूलों में अध्यापक बढे़ हैं और बच्चों को मिलने वाली सुविधाएँ भी। यह बदलाव सिर्फ पटनाClick here to see more news from this city या चंद शहरी इलाकों में ही नहीं, कमोबेश पूरे राज्य में हुआ है।

इसका मतलब यह नहीं कि शिक्षा का स्तर या सेहत सुधर गई है। गरीबी और बदहाली मिटने की तो बात ही छोड़िए, बिजली, उद्योग और रोज़गार के अवसर अभी जस के तस हैं। नए शिक्षकों की गुणवत्ता से हर कोई नाराज है, सड़कों में भी बहुत काम बाकी है।

लेकिन तीन दशक के बाद बिहार में आस लौटी है।

दूसरा सूत्र: सुशासन अभी दूर की कौड़ी है लेकिन शासन वापस आया है। औरत-मर्द, गरीब-अमीर, अगड़ा-पिछड़ा हर कोई मानता है कि दबंगई, रंगदारी, अपहरण और बाहुबल के जोर से बेगार पहले से बहुत घटे हैं।

लालू-राबड़ी राज के अंतिम दिनों का ‘अंधेर नगरी चौपट राजा वाला’ माहौल खत्म हुआ है। भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ, शायद पहले से कुछ बढ़ा ही है। लेकिन जनता को भरोसा है कि नीतीश कुमार अब इस पर कुछ करेंगे।

फिलहाल जनता चुनाव से पहले कुछ दबंग नेताओं से नीतीश कुमार के समझौते को नजरंदाज करने को तैयार है। बढ़ती अफसरशाही झेलने को तैयार है।

अगर सुशासन जनकल्याण के लिए और जनता के प्रति जवाबदेह सरकार का नाम है तो बाकी देश की तरह बिहार उससे कोसों दूर है। बस कोई पच्चीस-तीस साल बाद (जगन्नाथ मिश्र के कांग्रेस राज में शुरू हुए युग के बाद से) शासन वापस आया है, सरकार दिखने लगी है।

तीसरा सूत्र: मीडिया निष्पक्ष भले ही न हो, लेकिन उसकी कही हर बात झूठ नहीं है। विकास और सुशासन के नाम पर प्रचार के चलते बिहार का मीडिया सत्तारूढ़ सरकार के साथ खड़ा नजर आता है।

अपनी छवि के प्रति अति-सजग नीतीश कुमार सरकार के जरिए प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीकों से मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशें जानकार लोगों से छुपी नहीं हैं।

यूँ भी बिहार की मीडिया पर आज भी अगड़ी जातियों का वर्चस्व है। उनके स्वार्थ और पूर्वाग्रह नीतीश सरकार से जुड़े हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि नीतीश के पक्ष में जाने वाली हर खबर झूठी है।

पिछले चुनावों में मीडिया की तस्वीर और गरीब-गुरबा के जनमत से उभरने वाली छवि दो विपरीत संकेत देती थीं। इस बार ऐसा दिखाई नहीं देता।

चौथा सूत्र: जाति का चश्मा हटा नहीं है, लेकिन उसका नंबर बदल गया है। बाकी देश की तरह जाति बिहार के समाज, राजनीति और मन में बसी है। आम वोटर नेताओं, पार्टियों और सरकार को जाति के चश्मे से देखता रहा है। इस बार भी देखेगा।

फर्क यही है कि पहले किसी भी सरकार से कामकाज की संभावना इतनी दूरस्थ थी कि जाति के चश्मे से अपने स्वजातीय उम्मीदवार और नेता के सिवा और कुछ दिखता ही नहीं था।

अब यह संभावना नजदीक के चश्मे से भी दिखने लगी है। समाज में जातीय समीकरण पलटने से इस चश्मे का नंबर भी बदला है। अगड़ों में नीतीश के प्रति अनुराग कम होने की भरपाई अति-पिछड़ों के जबरदस्त समर्थन और महादलित और पसमांदा मुसलमानों में सेंध से हो सकती है।

उधर राजद-लोजपा गठबंधन के पक्ष में यादव और पासवान जाति का ध्रुवीकरण पहले से ज्यादा हुआ है, लेकिन बाकी सब तरफ उन्हें नुकसान हो सकता है।

पाँचवाँ सूत्र: लालू का सूरज डूबा नहीं हैं, लेकिन यह चुनाव नीतीश के इर्द-गिर्द हो रहा है। लालू प्रसाद यादव बिहार में सामाजिक क्रांति के अगुवा रह चुके है। पिछड़े और गरीब आज भी उन्हें स्नेह और सम्मान से देखते हैं।

लेकिन जिस आवाज का उठना लालू प्रसाद ने संभव बनाया, आज नीतीश कुमार उस आवाज को सुनने और उसकी अपेक्षाएँ पूरी करने के प्रतीक बन रहे हैं।

इस लिहाज से यह चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व के इर्द-गिर्द सिमट रहा है। उनके आभामंडल के सामने उनका अपना दल छोटा पड़ रहा है। भाजपा और राजग तो कहीं चर्चा में भी नहीं हैं।

छठा सूत्र: चुनाव पूरे हो जाएँगे लेकिन असली चुनौती अब शुरू होती है। पिछली बार जदयू-भाजपा गठबंधन लालू-राबड़ी राज के विरुद्ध आक्रोश के बल पर सत्ता पा गया था। इस बार अगर उनकी सत्ता में वापसी होती है तो उस जनादेश के साथ जनाकाँक्षाएँ भी जुडी होंगी।

इस बार लोग न्यूनतम से संतुष्ट नहीं होंगे। सिर्फ अध्यापकों की बहाली नहीं, बल्कि शिक्षा माँगेगे। रंगदारी घटने भर से खुश नहीं होंगे, दैनंदिन भ्रष्टाचार का ख़ात्मा चाहेंगे।

पूछेंगे कि इन सड़कों पर चलकर हम कहाँ जाएँ? बदहाली से छुटकारा चाहेंगे। रोजगार माँगेगें। अमन के साथ साथ इंसाफ भी माँगेगे।

नीतीश की राजनैतिक चुनौती वहाँ शुरू होगी। उन्हें सोचना पड़ेगा कि क्या बिहार का विकास महाराष्ट्र और पंजाब की नक़ल से किया जा सकता है या नहीं। पूछना होगा कि परिवर्तन कि राजनीति कहाँ तक अफसरशाही के सहारे की जा सकती है। बटाईदार ही नहीं पूरे भूमि के सवाल पर एक राय बनानी पड़ेगी।

बिहार का यह चुनाव बचपन में पढ़ी बाबा खड्ग सिंह की कहानी याद दिलाता है। अगर नीतीश कुमार इस बार चुनाव नहीं जीतते तो बिहार में कोई सरकार फिर कभी सड़कें नहीं बनाएगी। विकास और सुशासन का नाम भी नहीं लेगी।

लेकिन साथ ही साथ यह चुनाव रेणु की कालजयी कृति 'मैला आँचल' की भी याद दिलाता है। अगर नीतीश चुनाव जीत कर विकास और सुशासन की उसी डगर पर चलते हैं जो विश्व बैंक और योजना आयोग ने तय की है तो एक बार फिर बावनदास को मरने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

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